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संगीत के पारिभाषिक शब्द

Updated: Mar 9, 2023


प्रथम अ. भा. गांधर्व महाविद्यालय कि प्रारंभिक और प्रवेशिका परीक्षा के लिये उपयुक्त


पारिभाषिक शब्दों का स्पष्टीकरण (रागांग )


(1) संगीत :

गायन, वादन तथा नृत्य इन तीनों कलाओं को मिलाकर संगीत कला बनती है। "संगीत रत्नाकर" नामक ग्रंथ में इसकी परिभाषा निम्न प्रकार से दी गई है।

" गीतं वाद्यं तथा नृत्यं त्रयं संगीतमुच्यते । " प्राचीन काल में गायन प्रथम, उसके बाद वादन और अंत में नृत्य ऐसा क्रम माना जाता था।


(2) ध्वनि :


ध्वनि याने आवाज़ संगीत कानों से सुनी जाने वाली कला है, इसलिए ध्वनि संगीत में सबसे महत्त्वपूर्ण है। ध्वनि दो प्रकार की होती है संगीतोपयोगी और संगीत के लिए निरुपयोगी । -


(3) नाद :


उत्पन्न होने वाली ध्वनियों में से जो ध्वनियाँ संगीत के लिए उपयोगी या संगीतक्षम होती हैं, उन्हें नाद कहा जाता है। नाद के दो प्रकार होते हैं। आघात या घर्षण उत्पन्न होने वाला आहत नाद और दूसरा अनाहत - जो सिर्फ़ ऋषि मुनियों को ही सुनाई देता है।


(4) स्वर :


नाद को जब संगीतक्षम बनाया जाता है, तो वह नाद स्वर कहलाता है। विशिष्ट कंपनसंख्या के नाद को संगीत की भाषा में स्वर कहते हैं। भारतीय संगीत में मूल स्वर सात हैं। इन्हे सा = षड्ज, रे रिषभ, ग = गंधार, म = मध्यम, प = पंचम, ध = धैवत और नी निषाद, इन नामों से जाना जाता है। इन सात स्वरों को शुद्ध स्वर कहते हैं। ज रे, ग, घ और नी अपनी जगह से उतरकर नीचे आते हैं. तो उन्हे कोमल स्वर कहते हैं। लेकिन मध्यम (म) अपने जगह से हटकर थोड़ा ऊपर उठता है इसलिए उसे तीव्र मध्यम कहते हैं। इस तरह चार कोमल (रे, ग, ध, नी) और एक तीव्र (म), ऐसे पाँच विकृत और सात शुद्ध ऐसे कुल मिलाकर बारह स्वरों का संगीत में उपयोग किया जाता है।


(5) राग :


यह भारतीय संगीत की प्रमुख विशेषता मानी जाती है। इस शब्द की उत्पत्ति रज्ज् याने रिझाना, मनरंजन करना इस शब्द से हुई है। इसकी परिभाषा संस्कृत ग्रंथों में "रंज्जयति इति रागः " इस प्रकार की गई है। कहते हैं

यो ऽसौ ध्वनिविशेषस्तु स्वरवर्णविभूषितः ।

रञ्जको जनचित्तानाम् स रागः कथ्यते बुधैः ।

स्वर और वर्ण से युक्त (विभूषित) ऐसी रचना जो रंजक होती है, उसे गुणीजन राग कहते हैं। राग में कम से कम पाँच स्वर होना आवश्यक होता है।


(6) वर्ज्य स्वर :


राग में जो स्वर नहीं लिए जाते हैं, उन्हे वर्ज्य स्वर कहा जाता है। उदा. :- राग भूपाली में मध्यम और निषाद नहीं लिए जाते, इसलिए मध्यम और निषाद भूपाली में वर्ज्य हैं।

(7) थाट :


थाट अर्थात राग निर्माण करने की क्षमता रखने वाला क्रमशः सात स्वरों का समूह। भारतीय संगीत में बिलावल, कल्याण, खमाज, काफी, भैरव, मारवा, पूर्वी, आसावरी, तोड़ी, भैरवी ये दस थाट माने गए हैं। हरेक राग किसी न किसी घाट से उत्पन्न होता है। उदा. :- भीमपलासी राग काफी थाट से उत्पन्न होता है।


(8) जाति :

रागों में प्रयुक्त स्वरसंख्या के आधार पर रागों की जाति निर्धारित की जाती है। किसी राग में अधिक से अधिक सात एवं कम से कम पाँच स्वर (अपवाद स्वरूप कुछ रागों में चार स्वर) होना अनिवार्य है। अतः औड़व, षाड़व एवं संपूर्ण ये तीन जातियाँ प्रमुख मानी जाती हैं। पाँच स्वरों का राग औड़व जाति का, छह स्वरों वाला राग षाड़व जाति का एवं सात स्वरों वाला राग संपूर्ण जाति का होता है। कुछ रागों में आरोह अवरोह में समान स्वर नहीं होते। ऐसी स्थिति में उपजातियाँ बनती हैं।


(9) वादी :


राग का प्रधान स्वर वादी कहलाता है। यह स्वर बार-बार गायन- वादन में उभरकर सामने आता है। 'वदति इति वादी' ऐसी इसकी परिभाषा की जाती है। प्रायः वादी स्वर पर राग में ठहराव होता

उदा. :- भूपाली राग का प्रधान (मुख्य) स्वर गांधार है ।


(10) संवादी :


वादी स्वर से कम महत्त्वपूर्ण, किंतु राग में लगने वाले अन्य स्वरों से अधिक महत्त्वपूर्ण स्वर को संवादी कहते हैं। जैसे यमन राग का संवादी स्वर निषाद है।

















(11) अनुवादी :


राग में वादी संवादी स्वरों के अलावा लगने वाले अन्य स्वरों को अनुवादी कहते हैं।


(12) विवादी :


राग में जिस स्वर का प्रयोग नहीं होता किंतु कुशलतापूर्वक प्रयोग करने पर राग का सौंदर्य बढ़ता है ऐसे स्वर को विवादी कहते हैं ।


(13) सप्तक :


सात शुद्ध और पाँच विकृत स्वरों को मिलाकर संगीत में सप्तक बनता है। रे, ग, ध, नी और म इन स्वरों को चल स्वर याने अपनी जगह से नीचे या उपर जाने वाले स्वर कहते हैं। सप्तक तीन प्रकार के होते हैं।

मंद्र, मध्य और तार । -


मंद्र सप्तक - यह मध्य सप्तक के पहले का सप्तक होता है। हम जो प्रमाण षड्ज मानते हैं उससे एक सप्तक नीचे के षड्ज से लेकर प्रारंभ होनेवाला सप्तक मंद्र सप्तक होता है। जैसे निं धं पं मं


मध्य सप्तक - जिस सप्तक हम साधारणतः अधिक गाते- बजाते हैं वह मध्य सप्तक होता है। हमारे प्रमाण षड्ज से लेकर निषाद तक के स्वरों का अंतर्भाव मध्य सप्तक में होता इन स्वरों के लिए कोई चिह्न नहीं होता


तार सप्तक - प्रमाण षड्ज से एक सप्तक ऊपर के षड्ज से निषाद तक का सप्तक तार सप्तक होता है। जैसे सा' रे' म" प' ध' नी' हम जिसे प्रमाण षड्ज मानते हैं, उससे निषाद स्वर तक की सीमा एक सप्तक की मानी जाती है। मंद्र सप्तक से दुगुनी ऊँचाई पर मध्य सप्तक एवं मध्य से दुगुनी ऊँचाई पर तार सप्तक होते हैं।


(14) अलंकार :


आरोह अवरोह युक्त स्वरों की क्रमिक रचना को अलंकार कहते हैं।


उदा. :- (1) आरोह : सारेग, रेगम, गमप

अवरोह : सांनिध, निधप, धपम

(2) आरोह : सागरेसा, रेमगरे -

अवरोह- सांधनिस, निपधनि


स्वरस्थानों की तैयारी के लिए अलंकारों का अभ्यास आवश्यक है।


(15) आरोह अवरोह : -


किसी भी स्वर से ऊपर के स्वरों की ओर गाने अथवा बजाने की क्रिया को आरोह तथा ऊपर के स्वरों से नीचे के स्वरों की ओर गाने अथवा बजाने की क्रिया को अवरोह कहते हैं।

उदा. :-

(1) आरोह : सा ग म प नि सां अवरोह : सां नि प म ग सा

(2) आरोह : सा रे ग म प ध नि सां अवरोह : सां नि ध प म ग रे सा





(16) पकड़ :

राग का स्वरूप दिखाने वाले छोटेसे स्वरसमूह को राग की पकड़ कहते हैं। पकड़ सुनने से राग पहचाना जाता है। उदा. :- भीमपलास की पकड़ मप ग् म, ग् रे सा


(17) आलाप :


राग नियमों का पालन करते हुए रागों में लगने वाले स्वरों का धीमी गति में जब विस्तार किया जाता है तब उसे आलाप कहते हैं।


(18) तान :


तान शब्द का अर्थ है राग के स्वरों को द्रुत या तेज लय में गाना या बजाना। तन् याने तानना इस संस्कृत धातु से यह शब्द बना है । राग गायन में तानें द्रुत लय में ली जाती हैं।



(19) स्थायी और अंतरा :


राग गायन में गाए जाने वाले गीतों को 'बंदिश' कहते हैं। साधारणतः इस बंदिश के दो भाग होते हैं । पहले भाग को स्थायी और दूसरे भाग को अंतरा कहते हैं।


(20) तोड़ा :


सरोद, सितार जैसे वाक्योंपर बजाई जाने वाली तानों को तोड़ा (तोड़े) कहते हैं।



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पारिभाषिक शब्दों का स्पष्टीकरण : (ताल अंग)


(21) ताल :

ताल संगीत का परिमाण है। ताल की परिभाषाएं इस प्रकार हैं।

(1) गायन - वादन नृत्य को धारण करने वाले काल का क्रियात्मक, आवर्तनात्मक खंड ही ताल है। संगीत मकरंद

(2) गायन वादन नापने की क्रिया को ताल कहते हैं।

भरतमुनि

(3) गीत वाद्य नृत्य जिसमें स्थिरता से संस्थापित होता है उसे ताल कहा जाता है। -

अर्थात् मात्रा, विभाग, सम, ताली तथा खाली निश्चित किए हुए अलग- अलग मात्रा समूहों की रचना को ताल कहते हैं।


(22) ठेका :


तबले, पखावज पर बजाने के लिए ताल का स्वरूप अर्थात् मात्रा, विभाग, ताली, खाली को कायम रखकर ताल के वजन के अनुसार तबला । पखावज के अक्षरों से जो रचना की जाती है, उसे ठेका कहते हैं। ताल और ठेका ये दो संकल्पनाएँ एक समान न होकर उनमें कुछ फर्क अवश्य है। फिर भी ये दो संकल्पनाएँ एक-दूसरे से संबंध रखती हैं।

(23) खंड :


ताल रचना के विविध नियोजित मात्रा समूहों को खंड कहते हैं। ताल के खंड से ही ताल की पहचान होती है।


(24) सम :


ताल की आरंभ की मात्रा को सम कहा जाता है। ताल रूपक ही एक मात्र ऐसा ताल है जिसकी पहली मात्रा पर खाली है।





(25) ताली :


ताल व्यक्त करते समय जिस मात्रा पर ताली बजाई जाती है, उसी स्थान को ताली कहते हैं। ताल में दो प्रकार के खंड होते हैं। (i) भरी के खंड। (ii) खाली के खंड। इनमें से भरी के खंड दर्शाने के लिए उस खंड की पहली मात्रा पर जो क्रिया की जाती है उसे ताली कहते हैं।

उदा. : तीन ताल की तालियाँ 1, 5, 13 मात्राओं पर हैं इसलिए तीन ताल बोलते समय इन तीनों मात्राओं पर ताली बजाई जाती है।


(26) खाली (काल) :

सामान्यतः ताल की कुल मात्राओं में से आधी मात्राओं के बाद जो मात्रा आती है उसे खाली कहते हैं। लेकिन सभी तालों पर यह नियम लागू नहीं होता। 'खाली' हिंदी शब्द है जिसका मतलब है रिक्त । इसलिए ताल के वजनरहित (रिक्त) विभाग के प्रारंभ की मात्रा को खाली (काल मराठी शब्द) कहते हैं। ताल दर्शाते समय एक हाथ दूर हटाकर खाली दिखाई जाती हैं। उदा. :- तीन ताल में 9 वीं मात्रा पर खाली है इसलिए वह मात्रा हाथ दूर हटाकर दिखाई जाएगी। ताली - खाली के बारे में एक महत्त्वपूर्ण नियम है कि किसी भी ताल में लगातार दो खंड ताली के आ सकते हैं, लेकिन लगातार दो खंड खाली के नहीं आ सकते।


(27) आवर्तन :

ताल की चक्राकार गति को आवर्तन कहते हैं। अर्थात् कोई भी ताल सम से सम तक पढ़ा जाए अथवा बजाया

जाए तो उसे आवर्तन कहते है।


(28) लय :


संगीत में लय बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसकी कुछ परिभाषाएँ निम्नानुसार हैं

(i) समय की समान गति को लय कहते हैं।

(ii) दो मात्राओं के बीच के समान अवकाश को लय कहते हैं।


लय के तीन प्रमुख प्रकार होते हैं

(i) विलंबित लय (ii) मध्यलय (iii) द्रुतलय


(i) विलंबित लय : जो लय बहुत ही धीमी गति से चलती है उसे विलंबित लय कहते हैं। दो मात्राओं के बीच का अवकाश अधिक होने के कारण भी इसे विलंबित लय कहा जाता है।


(ii) मध्यलय : मध्यम गति की लय को मध्यलय कहते हैं । अर्थात् विलंबित लय की अपेक्षा अधिक परंतु द्रुत की अपेक्षा थोड़ी कम गति से चलने वाली लय को मध्यलय कहा जाता है ।


(iii) द्रुतलय : तेज गतिवाली लय को द्रुत लय कहते हैं इसमें दो मात्राओं में न्यूनतम अंतर होता है। छोटे ख्याल, तथा रजाखानी गतें इस लय में प्रस्तुत की जाती हैं। सामान्यतः लय के ये प्रकार परस्पर तुलना किए बगैर सिद्ध नहीं होते। इसलिए एक सेकंड को एक मात्रा यह मध्यलय का प्रमाण माना जाए तो, एक सेकंड में दो मात्रा की द्रुत लय तथा दो सेकंड में एक मात्रा की विलंबित लय कहलाएगी।


(29) मात्रा


ताल गिनने के एकक को मात्रा कहते हैं। जिस तरह से संगीत ताल से नापा जाता है, उसी तरह ताल मात्राओं की सहायता से नापा जाता है।


(30) दुगुन :


मुख्य लय का आधार लेकर एक मात्रा के अवकाश में दो मात्रा बोलने या बजाने को दुगुन कहते हैं। अर्थात् किसी भी ताल का ठेका "सम से सम" तक बोलते या बजाते समय ताल या ठेका दो बार आता


(31) तिगुन :


मुख्य लय का आधार लेकर एक मात्रा के अवकाश में तीन मात्रा बोलने या बजाने को तिगुन कहते हैं। अर्थात् किसी भी ताल का ठेका "सम से सम' तक बोलते या बजाते समय ताल या ठेका तीन बार आता है।


(32) चौगुन :


मुख्य लय का आधार लेकर एक मात्रा के अवकाश में चार मात्रा बोलने या बजाने को चौगुन कहते हैं। अर्थात् किसी भी ताल का ठेका “सम से सम" तक बोलते या बजाते समय ताल या ठेका चार बार आता है।


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(साभार : अखिल भारतीय गंधर्व महाविद्यालय,)




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